दो शब्दों की खोज में मैं निकला नदी किनारे
चार ब्राह्मफाश जाल लिए खड़े हैं मछुआरे
बगुलाो की साम्राज्य उतरे तोड़ते हुए कतारें
दोस्त शब्द की बजाय सर पर लद गए शब्द हजारे
नीर कि शीतलताओं से निकली एक आवाजें
मैं तो शीतल नीर हूं और तुम हो प्यासे
आभास करके आज तुम पहुंचे हो मेरे पासे
शीतल हो जाओ ए मेरे प्रीतम बगैर पढ़े नवाजे
धो लो सारे बदन तुम आ कर मेरे पास
मेरी कल कल करती गीत का बनो राग
मुझे तुम्हारे मनोवृति पर है बड़ी नाज
आज शीतल हो जाओ वरना नहाओ गे बनकर लाश
मैं नहीं छोड़ती कोई व्यंग बाण
मेरी शीतलता ओ से मुझे पहचान
तुम आज आकर कर लो स्नान
नहीं तो आओगे परंतु नहीं रहेगी प्राण
यह मछलियों की घनी टोलियां
भागते नीर में जैसे गोलियां
सुनिए ना कोई इसकी बोलियां
मनाते रहते नीर में हो होलियां
सूर्योदय से पहले संत आते हैं
इनका ना कोई वस्तु है ना ही कोई नाते हैं
शीतलताओं से शीतल होकर जाते हैं
शीतलता में करुणामई भजन गाते हैं
कुछ तुच्छ प्राणी करते हैं मुझे गंदा
अपने गले में डालते हैं खुद फंदा
कोई मुझे नदी कहे तो कोई मुझे गंगा
कहीं मैं उथल-पुथल से हूं तो कहीं हूं मैं चंगा
छोटे बच्चे नहाते हैं मुझ में होकर नंगे तन
शीतलता में बदलती हूं उनका चंचल मन
मैं अकेली हो जाती हूं जहां होते हैं वन
मुझ में विचरण करती है अनेकों गुण भ्रमण
!!!!!!! लेखक रामू कुमार !!!!!!
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